Sunday, August 30, 2009

Premarth (प्रेमार्थ)

This poem is loosely based on "The Seven Stages Of Love" which I described earlier.

प्रेम का अर्थ जाने बिन,
कहते हैं लोग कि उन्हें भी,
बहना है प्रेम की धारा में,
रहना है प्रेम की छाया में।

आकर्षण की जिस आंधी को,
लोग प्रेम का नाम हैं देते,
वो न जाने असल प्रेम की,
छवि को धूमिल ही वो करते।

मोह की मदिरा में डूब,
क्या जानेंगे वो लोग,
कि आखिर किस एहसास में,
प्रेम छिपा है किस विश्वास में।

प्रेम तो है जैसे पवन,
जो निरंतर बहती है,
प्रेम तो है जैसे नदी,
जो कलकल करती चलती है।

प्रेम तो है जैसे पूजा,
जो कभी न खाली जाती है,
प्रेम तो है वो जुनूनी ताकत,
जो सदा ही हावी रहती है।

प्रेम तो है वो आशा,
जो मृत्यु के बाद भी जीवित है,
प्रेम की है यही परिभाषा,
जो ना समझे वो मूर्ख है।


-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
३०-०८-०९ 30-08-09

1 comment:

Phoenix said...

prem ke is samandar se,
humein wakif kara diya,
na jante hue bhi aapne,
moorakh ko shikshak bana diya.