Monday, November 16, 2009

Baazaar (बाज़ार)

देवियों और सज्जनों,
आइए आइए यहाँ पर बाज़ार लगा है,
जहाँ सब कुछ बिकता है।
चमकीले लिबासों में सजा,
यहाँ सब कुछ मिलता है।

यहाँ हर चीज़ की कीमत है,
बस चुकाने वाला चाहिए।
दिल को बड़ा कर बोली लगाइए,
फिर कीमत चुकाइए,
और घर ले जाइए।

यहाँ इंसान बिकते हैं,
और उनके अरमान भी,
ज़मीर खरीदे बेचे जाते हैं।
कीमत मिलने का वायदा मिले,
तो जज़्बात भी बिक जाते हैं।

ये बाज़ार बड़ा ज़ालिम है बाबू,
जो दिखता है बस वही बिकता है।
यहाँ जंगल का कानून है लागू,
जो गिरा पड़ा है,
वो रौंद दिया जाता है।

इसकी हवा में एक नशा है,
जो यहाँ आता है,
वो धुत हो जाता है।
संयम और समझदारी से ही,
इस से बचा जा सकता है।


-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
१६-११-२००९ 16-11-2009

Saturday, November 14, 2009

Pagli Ladki (पगली लड़की)

This poem is one of the earliest and best written by our own renowned Hindi poet Dr. Kumar Vishwas. Enjoy...

अमावस की काली रातों में, दिल का दरवाज़ा खुलता है,
जब दर्द की प्याली रातों में, गम आँसू के संग घुलता है,
जब पिछवाड़े के कमरे में, हम निपट अकेले होते हैं,
जब घड़ियाँ टिक टिक चलती हैं, सब सोते हैं हम रोते हैं,
जब बार बार दोहराने से, सारी यादें चुभ जाती हैं,
जब ऊँच नीच समझाने में, माथे की नस दुख जाती है,
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है।

जब पोथे खाली होते हैं, जब हर्फ़ सवाली होते हैं,
जब गज़लें रास नहीं आतीं, अफ़साने गाली होते हैं,
जब बासी फीकी धूप समेटे, दिन जल्दी ढल जाता है,
जब सूरज का लश्कर छत से, गलियों में देर से जाता है,
जब जल्दी घर जाने की इच्छा, मन ही मन घुट जाती है,
जब कालेज से घर लाने वाली, पहली बस छुट जाती है,
जब बेमन से खाना खाने पर माँ, गुस्सा हो जाती है,
जब लाख मना करने पर भी, पारो पढ़ने आ जाती है,
जब अपना मनचाहा हर काम, कोई लाचारी लगता है,
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है।

जब कमरे में सन्नाटे की, आवाज़ सुनाई देती है,
जब दर्पण में आँखों के नीचे, झांई दिखाई देती है,
जब बड़की भाभी कहती हैं, कुछ सेहत का भी ध्यान करो,
क्या लिखते हो लल्ला दिन भर, कुछ सपनों का सम्मान करो,
जब बाबा वाली बैठक में, कुछ रिश्ते वाले आते हैं,
जब बाबा हमें बुलाते हैं, हम जाते में घबराते हैं,
जब साड़ी पहने लड़की का, एक फ़ोटो लाया जाता है,
जब भाभी हमें मनाती हैं, फ़ोटो दिखलाया जाता है,
जब सारे घर का समझाना, हम को फ़नकारी लगता है,
तब इक पगली लड़की के बिन, जीना गद्दारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है।

दीदी कहती हैं कि, उस पगली लड़की की कुछ औकात नहीं,
उसके दिल में भैय्या, तेरे जैसे प्यारे जस्बात नहीं,
वो पगली लड़की मेरे खातिर, नौ दिन भूखी रहती है,
चुप चुप सारे व्रत करती है, पर मुझ से कभी न कहती है,
जो पगली लड़की कहती है, मैं प्यार तुम्हीं से करती हूँ,
लेकिन मैं हूँ मजबूर बहुत, अम्मा बाबा से डरती हूँ,
उस पगली लड़की पर अपना, कुछ भी अधिकार नहीं बाबा,
ये कथा कहानी किस्से हैं, कुछ भी तो सार नहीं बाबा,
बस उस पगली लड़की के संग, जीना फुलवारी लगता है,
और उस पगली लड़की के बिन, मरना भी भारी लगता है।


- डा० कुमार विश्वास

Wednesday, November 11, 2009

Jana Gana Rann (जन गण रण)

This song 'Jana Gana Rann' is from an upcoming Ram Gopal Varma's movie 'Rann'. The lyrics is striking and I was shaken when I first heard it. It shares a distinct similarity with our National Anthem which makes it so appealing. I will not be surprised if there are objections raised over this song and the movie in future. Have a look and please do listen to the song before they ban it.

जन गण मन रण है इस रण में,
ज़ख्मी भारत का भाग्यविधाता।

पंजाब सिंधु गुजरात मराठा,
इक दूसरे से लड़ के मर रहे हैं।

इस देश ने हम को एक किया और हम देश के टुकड़े कर रहे,
द्राविड़ उत्कल बंगा।

खून बहा कर एक रंग का कर दिया हमने तिरंगा,
सरहदों पे जंग और गलियों में फसाद रंगा।

विंध हिमाचल यमुना गंगा,
में तेज़ाब उबल रहा है|

मर गया सबका ज़मीर,
जाने कब ज़िंदा हो आगे।

फिर भी तब शबनम में जागे,
तव शुभ आशीष माँगे।

आग में जल कर चीख रहा है फिर भी कोई नहीं बचाता,
गाहे तव जय गाथा।

देश का ऐसा हाल है लेकिन,
आपस में लड़ रहे नेता।

जन गण मंगलदायक जय हे,
भारत को बचा ले विधाता।

जय हे या ये मरण है,
जन गण मन रण है।

Monday, November 9, 2009

Aaj Vo Dukhi Hai (आज वो दुखी है)

आज वो दुखी है,
उसका दिल टूटा है,
उसका कोई अपना,
आज उस से रूठा है।

आज रिश्तों के कुछ,
मज़बूत बंधन टूटे हैं,
पुराने कुछ धागे उसके,
हाथों से छूटे हैं।

क्या करे वो कहाँ जाए,
किसको अपनी पीड़ा बतलाए,
घर उसके खुशी की दस्तक हुए,
आज एक अरसा बीता है।

नादान था वो,
अभी तक बच्चा था,
सही गलत पहचानने में,
अभी थोड़ा कच्चा था।

वो जिसे अपना समझ,
ताउम्र झुलसता रहा,
वही दगाबाज उसे,
हमेशा ही डसता रहा।

पर अब इंसानी फितरत को,
उसने बखूबी भाँप लिया है,
और संभलने का प्रण कर,
वो दोबारा चल पड़ा है।


-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
०९-११-२००९ 09-11-2009