Saturday, April 11, 2009

Aakhiri Faisala (आखिरी फ़ैसला)

ये कहानी प्रेरित है एक सच्ची घटना से जो कुछ साल पहले कोलकाता में घटी थी। मुझे इसका पता अखबारों से लगा था और तब मैंने इस बारे में विचार किया कि ऐसा हुआ तो आखिर क्यों? कहानी के किरदार असल ज़िंदगी से लिए गए हैं और उनके साथ जो कुछ हुआ वो भी असलियत है, बस उसको प्रस्तुत करने के काम में मुझे अपनी कल्पना के मोती भी जोड़ने पड़े हैं।

हमारी कहानी के मुख्य पात्र एक सेवानिवृत सरकारी कर्मचारी हैं, जो कि अपने कार्यकाल में अपनी ईमानदारी और कर्तव्यपरायणता के लिए प्रसिद्ध थे। उनके साफ़ सुथरे व्यक्तित्व का सब आदर करते थे। उनकी पत्नी एक सीधी साधी और पूजा पाठ करने वाली साधारण महिला थी। वे ज़्यादा पढ़ी लिखी नहीं थीं परंतु अपने श्रीमान के साथ हर सुख दुख में डट कर साथ खड़ी रहीं और अपने पति के हर फ़ैसले का सम्मान किया। वैसे उन दोनों को किसी भी तरह की कोई कमी नहीं थी, परंतु अगर कुछ नहीं था उनके पास तो कोई ऐसा जिसे अपनी औलाद कह सकें। बहुत सालों पहले उन्हें पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई थी पर वो बेचारा कुछ महीनों में ही भगवान को प्यारा हो गया। आज अगर होता तो कोई २४-२५ वर्ष का होता। उसके जाने के बाद श्रीमति जी ने हर संभव प्रयास किया कि उन्हें ये सौभाग्य प्राप्त हो पर कोई खास परिणाम नहीं निकला। बहरहाल, दोनों ने अब तक किसी तरह एक दूसरे के सहारे जीवन यापन किया। पर कहीं न कहीं एक कसक दिल में बाकी रह ही गई, कि जीवन भर जो इतनी मेहनत की, वो किस काम की, जब कोई वारिस ही नहीं, कोई ऐसा ही नहीं जिसे अपना कह सकें, जिसे प्रेम से गले लगा सकें। कोई ऐसा है ही नहीं, जो राम जी के पास पहुँचने पर उनकी चिता को अग्नि भी दे सके।

सेवानिवृत जीवन का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि ना चाहते हुए भी मन उन बातों की तरफ़ भटकता है जिनके बारे में सोचने से पीड़ा होती है। और स्थिति की विडंबना ये है कि जब हम कामकाज में व्यस्त होते हैं तो सोचते हैं कि कब इस सब से छुट्टी मिले तो कुछ आराम किया जाए। बस इसी विकट समस्या ने हमारे मुख्य पात्र को घेर रखा था। श्रीमति जी तो फ़िर भी ईश्वर के चरणों में समर्पित थीं तो उनका समय कट जाया करता था, परंतु श्रीमान क्या करें? कोई पुराना शौक भी नही जिससे दिल बहला लें। बस अब रह रह के यही ख्याल आता कि अब जियें तो किसके लिए। ऐसे ही एक अलसाई सुबह श्रीमान जी उठे, तो थोड़े विचलित थे। श्रीमति जी का ध्यान उस ओर गया पर उन्होंने उनसे इस बारे में कुछ भी नहीं पूछा। तीस साल साथ रहने के बाद आपको अपने साथी के स्वभाव का बखूबी अंदाज़ा लग जाता है। वो जानती थीं कि आज कल श्रीमान की मनोस्थिति कैसी चल रही है, इसीलिए उन्होंने उनको उनके हाल पर छो़ड़ना ही उचित समझा। परंतु शाम होते होते बात अपने आप ही साफ़ हो गई। श्रीमान जी उनके पास आए और बताया, "आज सुबह से ही मेरा मन बड़ा विचलित है। मुझे एक अजीब सी जकड़न महसूस हो रही है जो मुझे चैन नहीं लेने दे रही। भीतर कुछ ऐसा है जो मुझे मन ही मन कचोट रहा है। असल बात यह है कि अब मेरी जीने की इच्छा समाप्त हो गई है।" पूरी बात सुन श्रीमति जी परेशान हो उठीं। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि वो श्रीमान जी को कैसे समझायें। खैर उन्होंने अपने पति से कहा, " देखिये, बीती बातों को भूल जाइए और अपने बाकी के जीवन को, जो है उसी में गुज़ारने की कोशिश कीजिए।" बात आयी गयी हो गई।

इस बीच श्रीमान जी का मन अब पूरी तरह उखड़ चुका था। उनके मन में तरह तरह के विचार पनपने लगे। उनके दांपत्य जीवन पर भी इसका सीधा प्रभाव पड़ा और वो अपनी पत्नी को, जिनसे उन्होंने इससे पहले कभी ऊँची आवाज़ में बात तक नहीं की थी, बात बात पर झिड़क देते। शायद उन्हें ये गलतफ़हमी हो गई थी कि कहीं न कहीं उनकी इस अवस्था का कारण उनकी पत्नी भी हैं। अब उन्हें ये कौन समझाये कि होनी को जो मंज़ूर था वही हुआ, इसमें बेचारी श्रीमति जी का क्या दोष? पर इतना सब होने के बाद भी बेचारी ने उफ़ तक नहीं की। शायद उन्होंने इसे अपनी नियति मान कर स्वीकार कर लिया था। दिन गुज़रते गए और हालात बद से बदतर होते रहे।

एक शाम श्रीमान जी अपनी पत्नी से बोले, "देखो भाग्यवान, आज हावड़ा ब्रिज घूमने चलते हैं। सैर की सैर हो जाएगी और मन भी बहल जाएगा।" श्रीमति जी अचानक आए इस परिवर्तन से बहुत प्रसन्न हुयीं। उन्हें लगा कि शायद अब श्रीमान जी पहले की तरह ही सामान्य हो रहे हैं और उन्होंने अपने कष्टों से समझौता कर लिया है। वे तुरंत राज़ी हो गयीं और जल्दी से तैयार हो कर चल पड़ीं। परंतु उन्हें अपने पति के इरादों का ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था। इस घूमने ले जाने के पीछे एक बड़ा राज़ छिपा था। हावड़ा ब्रिज पहुँचने पर श्रीमान जी ने अपने इरादे ज़ाहिर किए। वे बोले, " मैं आज यहाँ अपना जीवन समाप्त करने आया हूँ। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि अब मेरे जीने का कोई औचित्य नहीं बनता। मैं जिन भी कामों के लिए इस दुनिया में आया था वो पूरे हो चुके हैं और अब मैं ये संसार त्यागना चाहता हूँ। मैं ये भी चाहता हूँ कि जैसे तुमने अब तक किए गए मेरे सारे फ़ैसलों में मेरा साथ दिया है, इस आखिरी फ़ैसले में भी मेरा साथ दो। मैं तुमसे अभी भी उतना ही प्रेम करता हूँ जितना कि पहले करता था। मैंने पिछले कुछ समय में नासमझी में कुछ गलत कहा हो या किया हो तो मुझे माफ़ कर दो।" ये सब सुन कर श्रीमति जी सकते में आ गयीं। उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा था कि श्रीमान जी ऐसा कदम उठाने की भी सोच सकते हैं। उन्होंने रोते हुए कहा, "प्रिय, आप ऐसी बातें न कीजिये। मेरा आपके सिवा और कोई नहीं है। क्या आपने ये भी नहीं सोचा कि आपके बाद मेरा क्या होगा? मैं आपके बिना एक पल नहीं रह सकती। मैं आपको ये कदम उठाते नहीं देख सकती।" इस पर श्रीमान जी बोले, " मेरे पास और कोई रास्ता नहीं हैं। मैं अब एक पल नही रह सकता। मुझे मेरे फ़ैसले पर अमल कर लेने दो और तुम घर वापस लौट जाओ।" फ़िर कुछ सोचने के बाद श्रीमति जी ने कहा, " ठीक है। अगर आप अपनी बात पर अडिग हैं तो मैं भी अचल हूँ। पूरा जीवन आपके साथ बिताने का वचन दिया था तो आपके साथ मरने को भी तैयार हूँ। वैसे भी आपके अलावा मेरा ना कोई ओर है ना छोर। मैं भी आपके साथ अपना जीवन समाप्त करना चाहती हूँ"। अब रोने की बारी श्रीमान जी की थी। उन्होंने भी कभी नहीं सोचा था कि श्रीमति जी ऐसा कुछ करने को तैयार हो जाएँगी। उन्होंने बहुत समझाया पर वो नहीं मानी। आखिरकार दोनों ने ही पुल से छलांग लगा दी।

कहानी यहीं खत्म हो जाती तो मुझे थोड़ा कम दुख होता। पर आगे की बात जान कर कलेजा मुँह को आ गया। नदी में कूदने पर श्रीमान जी का सामना जब सचमुच की मौत से हुआ तो उनको पता चला कि अपनी जान देना इतना आसान काम नहीं है। कहाँ तो वो इतने दिनों से प्राण त्यागने की बात सोच रहे थे और कहाँ अब उनके मन में किसी तरह से बचने का ख्याल आ गया। वे तैरना जानते थे, इसीलिये किसी तरह से किनारे तक आ गए। परंतु श्रीमति जी के शरीर को अगले दिन गोताखोरों की मदद से ही निकाला जा सका। नदी किनारे अपना सिर पकड़े श्रीमान जी बैठे हैं और सोच रहे हैं कि उन्होंने ये आखिरी फ़ैसला आखिर क्यों लिया? पहले वो तन्हा थे, अब... पहले से भी ज़्यादा...

3 comments:

PALLAVI !!!!!! said...

heart touching story.

sameer said...

This ws one of d best story i hav evr read.I think Insaan ko kabhi bhi apne JEEVAN se haar nai manni chahiye aur har faisla soch samajhkar kar karna chaiye chahe wo uska pehla ya AAKHIRI faisla ho !!

ghansham das ahuja said...

dil ko chhoo gayee aapki yeh kahani
kyon ki nichhavar patni ne jindgani
aise vyakti ko kya kaha jaye,khud hua barbaad aur patni padi gavani.

kash usne akhiree faisle ke pahle punah socha hota, jo akhiree raha bhi nahi .
ghansham das ahuja