Sunday, August 3, 2008

Hazaaron Khwahishen Aisi (हज़ारो ख्वाहिशे ऐसी)

हज़ारो ख्वाहिशे ऐसी, कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फ़िर भी कम निकले ।

क्यो मेरा कातिल, क्या रहेगा उसकी गर्दन पर,
वो खून, जो चश्म-ए-तार से उम्र भर यू दम-ब-दम निकले ।

निकलना खुल्द से आदम का, सुनते आये है लेकिन,
बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले ।

भ्रम खुल जाये ज़ालिम, तेरी कामत की दराज़ी का,
अगर इस तराहे पर पेच-ओ-खम का पेच-ओ-खम निकले ।

मगर लिखवाये कोई उसको खत, तो हमसे लिखवाये,
हुई सुबह और घर से, कान पर रख कर कलम निकले ।

हुई इस दौर मे मन्सूब मुझसे बडा आशामी,
फिर आया वो ज़माना, जो जहा मे जाम-ए-जाम निकले ।

हुई जिन से तवक्का खास्तगी की दाद पाने की,
वो हम से भी ज़्यादा खास्ता-ए-तेघ-ए-सितम निकले ।

मोहब्ब्त मे नही है फ़र्क, जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते है, जिस काफ़िर पे दम निकले ।

ज़रा कर जोर सीने पर कि तीर-ए-परसितम निकले,
जो वो निकले तो दिल निकले, जो दिल निकले तो दम निकले ।

खुदा के वास्ते, पर्दा ना काबिज़ उठा ज़ालिम,
कही ऐसा ना हो, यहा भी, वही काफ़िर सनम निकले ।

कहा मयखाने का दरवाज़ा गालिब, और कहा वाइज़,
पर इतना जानते है कल, वो जाता था कि हम निकले ।

हज़ारो ख्वाहिशे ऐसी, कि हर ख्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान, लेकिन फ़िर भी कम निकले ।

1 comment:

Vaibhav Jain said...

translation hoye to wo bhi daal deta yaar.. kuch samajh nahi aa rahi ye gazal

:P