Saturday, August 23, 2008

Vo (वो)

"उस" को समर्पित ।

जीवन के किसी मोड़ पे,
मुझे "वो" मिली थी ।
हमसफ़र बन कुछ दूर तलक,
साथ "वो" चली थी ।

उसकी हर हरकत सुनहरी,
हर अदा मस्तानी थी ।
तन का सौन्दर्य तो था अनुपम,
मन की बात ही निराली थी ।

उसकी मुस्कुराहट में नशा था,
जिसे देख मैं उस पर फ़िदा था ।
उसकी बोली में थी ऐसी मिठास,
जिसे सुन मैं बावरा हो चला था ।

उसकी आँखों की चमक, उसकी साँसों की महक,
उसकी पायल की खनक, उसकी ज़ुल्फ़ों की लटक ।
उसके कानों की बाली, उसके होठों की लाली,
बिन उसके दिन थे सूने, मेरी रातें थीं खाली ।

एक पल को थी वो यहीं,
न जाने फ़िर कहाँ ओझल हुई ।
मुझे लगा जैसे मेरे,
जिस्म से साँसें अलग हुई ।

कल ही सपने में आयी वो,
मैनें पूछा तुम कहाँ गयीं ?
उत्तर में अपनी आँखों से,
वो कुछ आँसू गिरा गयी ।


-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
२३-८-२००८
23-08-2008

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