गुज़रे वक्त ने जब दस्तक दी,
तारीख तब बदल चुकी थी ।
हम कहीं से शुरू हुए थे,
ना जाने कहाँ आके रुके हैं ?
बुलंद हौसलों की दरकार थी,
इसी कोशिश मे लगे रहे ।
हम कहीं से शुरू हुए थे,
ना जाने कहाँ आके रुके हैं ?
अब नज़र में है अपनी मन्ज़िल,
पर इल्म न है क्या-क्या खोया ।
हम कहीं से शुरू हुए थे,
ना जाने कहाँ आके रुके हैं ?
सब कुछ लुटाया जिसकी चाह में,
उसी ने कभी आवाज़ न दी ।
हम कहीं से शुरू हुए थे,
ना जाने कहाँ आके रुके हैं ?
-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
९-८-२००८ 09-08-2008
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