Wednesday, August 6, 2008

Manzar (मन्ज़र)

क्यों हम भूल चुके हैं,
कि हम कभी भाई थे ।
साथ बैठ एक थाली में,
माँ के हाथ से खाते थे ।

कयों आज यहाँ सब दरो-दीवार,
खून की स्याही से स्याह हैं ।
फ़लो के दरख़्तों की जगह हमने,
कयों बबूलों के झाड़ बोये हैं ।

क्यों आज यहाँ की सड़को पर,
भेड़िये शिकार की फ़िराक मे हैं ।
इंसानो में ढूँढने से भी कहीं,
एक अदद इन्सान मिलना मुश्किल है ।

मेरी आखिरी ख़्वाहिश है कि,
ये तमाम मन्ज़र बदलना चाहिये ।
इस उजड़े चमन की जगह,
वापस सच्चा हिन्दोस्तां बनाना चाहिये ।

- प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
६-८-२००८ 06-08-2008

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