अपने अतीत की परछाईं से मैं,
पीछा छुडा़ने की जुगत मे लगा हूँ ।
पर कमबख्त परछाईं की है ऐसी फ़ितरत,
कि भूत सी मेरे दामन से चिपकी है ।
रात के अन्धेरे में सोता हूँ,
तो नींद से जगा जाती है ।
दिन के उजाले में सोचता हूँ,
तो हैरां सी छोड़ जाती है ।
मेरा कल है मेरे आज पर भारी,
इस शोर में भी खामोशी है तारी ।
साँसो की ज़रा आहट भी डरा जाती है,
धूएँ में ज़िन्दगी की लौ समा जाती है ।
कभी मैं भी खुश था,
हर तरह से संतुष्ट था ।
अब ज़िंदगी की किश्तें तो हैं,
पर हरदम साथ है कश्मकश ।
-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
५-८-२००८ 05-08-2008
2 comments:
mast hai sir
faaaaaaaaad....
kya bhai... ese kavi humare college me? mast hai yaar.. one of the best i have ever read by a unrecognized kavi..
simply awesome
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