Sunday, August 30, 2009

Premarth (प्रेमार्थ)

This poem is loosely based on "The Seven Stages Of Love" which I described earlier.

प्रेम का अर्थ जाने बिन,
कहते हैं लोग कि उन्हें भी,
बहना है प्रेम की धारा में,
रहना है प्रेम की छाया में।

आकर्षण की जिस आंधी को,
लोग प्रेम का नाम हैं देते,
वो न जाने असल प्रेम की,
छवि को धूमिल ही वो करते।

मोह की मदिरा में डूब,
क्या जानेंगे वो लोग,
कि आखिर किस एहसास में,
प्रेम छिपा है किस विश्वास में।

प्रेम तो है जैसे पवन,
जो निरंतर बहती है,
प्रेम तो है जैसे नदी,
जो कलकल करती चलती है।

प्रेम तो है जैसे पूजा,
जो कभी न खाली जाती है,
प्रेम तो है वो जुनूनी ताकत,
जो सदा ही हावी रहती है।

प्रेम तो है वो आशा,
जो मृत्यु के बाद भी जीवित है,
प्रेम की है यही परिभाषा,
जो ना समझे वो मूर्ख है।


-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
३०-०८-०९ 30-08-09

Friday, August 28, 2009

Than Gayi! (ठन गई!)



This poem is written by ex-Prime Minister of India and an esteemed poet, Mr. Atal Bihari Vajpayee. During the period of Emergency (1975-77), he was put in to Bangalore Jail, where he fell extremely ill. He was then admitted to AIIMS, New Delhi where he wrote this poem.


ठन गई! मौत से ठन गई!

जूझने का मेरा इरादा न था,
मोड़ पर मिलेंगे इसका वादा न था,
रास्ता रोक कर वह खड़ी हो गई,
यों लगा ज़िन्दगी से बड़ी हो गई।

मौत की उम्र क्या है?
दो पल भी नहीं,
ज़िन्दगी है सिलसिला,
आज कल की नहीं।

मैं जी भर जिया,
मैं मन से मरूँ,
लौटकर आऊँगा,
कूच से क्यों डरूँ?

तू दबे पाँव,
चोरी-छिपे से न आ,
सामने वार कर,
फिर मुझे आज़मा।

मौत से बेख़बर,
ज़िन्दगी का सफ़र,
शाम हर सुरमई,
रात बंसी का स्वर।

बात ऐसी नहीं कि कोई ग़म ही नहीं,
दर्द अपने-पराए कुछ कम भी नहीं।
प्यार इतना परायों से मुझको मिला,
न अपनों से बाक़ी हैं कोई गिला।

हर चुनौती से दो हाथ मैंने किये,
आंधियों में जलाए हैं बुझते दिए।
आज झकझोरता तेज़ तूफ़ान है,
नाव भँवरों की बाँहों में मेहमान है।
पार पाने का क़ायम मगर हौसला,
देख तेवर तूफ़ाँ का, त्योरी तन गई।

ठन गई! मौत से ठन गई!


-अटल बिहारी वाजपेयी

Saturday, August 22, 2009

Is Baar Nahi (इस बार नहीं)

This poem was written by Mr. Prasoon Joshi after the Mumbai attacks of 26th November. I found it worth posting on my blog.

इस बार जब वो छोटी सी बच्ची मेरे पास अपनी
खरोंच ले कर आएगी,
मैं उसे फूँ फूँ कर नहीं बहलाऊँगा,
पनपने दूँगा उसकी टीस को,
इस बार नहीं।

इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखा देखूँगा,
नहीं गाऊँगा गीत पीड़ा भुला देने वाले,
दर्द को रिसने दूँगा, उतरने दूँगा अंदर गहरे,
इस बार नहीं।

इस बार मैं ना मरहम लगाऊँगा,
ना ही उठाऊँगा रुई के फाहे,
और ना ही कहूँगा कि तुम आँखें बंद कर लो,
गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगाता हूँ,
देखने दूँगा सबको हम सबको खुले नंगे घाव,
इस बार नही।

इस बार जब उलझनें देखूँगा, छटपटाहट देखूँगा,
नहीं दौड़ूगा उलझी डोर लपेटने,
उलझने दूँगा जब तक उलझ सके,
इस बार नहीं।

इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊँगा औज़ार,
नहीं करूँगा फ़िर से एक नयी शुरूआत,
नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की,
नहीं आने दूँगा ज़िंदगी को आसानी से पटरी पर,
उतरने दूँगा उसे कीचड़ में, टेढ़े मेढ़े रास्तों पर,
नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून,
हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग,
इस बार नहीं बनने दूँगा उसे इतना लाचार,
कि पान की पीक और खून का फ़र्क की खत्म हो जाए,
इस बार नहीं।

इस बार घावों को देखना गौर से,
थोड़े लंबे वक्त तक,
कुछ फ़ैसले,
और उसके बाद हौसले,
कहीं तो शुरूआत करनी ही होगी,
इस बार यही तय किया है।

-प्रसून जोशी

Wednesday, August 19, 2009

Dhoomketu (धूमकेतु)

This poem is dedicated to my good friend Sudhir Kumar, without whom it was never going to be complete.


पल में चमक पल में अंधकार,
क्षण में जीत क्षण में हार,
ये मेरा धूमकेतु सा जीवन ।

अपने ही पथ पर घूमता,
जैसे हर घड़ी कुछ ढूँढता,
ये मेरा धूमकेतु सा जीवन ।

अग्नि सा जलता तन,
अलाव की राख़ से आँसू,
ये मेरा धूमकेतु सा जीवन ।

कुछ रास्ते छोड़ता कुछ रिश्ते जोड़ता,
तब भी अपने में सुलगता,
ये मेरा धूमकेतु सा जीवन ।

परम सत्य की तलाश में,
झूठ से घायल आकाश में,
ये मेरा धूमकेतु सा जीवन ।

देखा है मैंने धर्म को जलते हुए,
आस्था की आँच पर ईश्वर-अल्लाह को ढलते हुए,
अब ना जाने कितना जलेगा,
ये मेरा धूमकेतु सा जीवन ।

-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
१९-०८-०९ 19-08-09

Punarjanm (पुनर्जन्म)

This poem is inspired by the book "Many Lives Many Masters" written by Dr. Brian Weiss. Also, this poem is dedicated to my dear friend Divyanshu Tripathi, who made me read that awesome book.


किसी विद्वान से सुना था मैंने कभी,
हर जीवित तन में है आत्मा का वास,
तन नष्ट हो जाते हैं फ़िर भी,
पहुँचे न आत्मा को क्षति कुछ खास ।

समय बदले तन बदले,
आज यहाँ कल वहाँ विराजे,
अलग योनि अलग रूप में,
हर बार संसार को साजे ।

परंतु कर्मों की छाया से,
हो उज्जवलित और धूमिल,
और सारे निर्णयों का फल,
हो अगले जीवन में शामिल ।

विरले होते हैं वो जिनको,
याद रहे ये अगला पिछला,
अपनी आप बीती सुनाने का,
मिले मौका ये निराला ।

कठिन है बहुत स्वीकारना,
इस जीवन-दर्शन को,
पर जिस क्षण हो एहसास,
संजोना उस पल को ।


-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
१९-०८-०९ 19-08-09

Tuesday, August 18, 2009

Khushi (खुशी)

आज मेरे मन-मस्तिष्क में,
ये विचार कौंधा कि,
आखिर जिसे कहते हैं खुशी,
वो एहसास क्या है?

क्या वो क्षणिक आनंद,
जो हमें कभी मिला था;
उसे खुशी की श्रेणी में,
रखा जा सकता है?

या वो क्षणभंगुर नशा,
जो किसी जीत के बाद
चढ़ा था; वो खुशी की
गरिमा बढ़ा सकता है?

बहुत चिंतन के बाद,
निष्कर्ष ये निकला कि,
जो निश्चल और निरंकार है,
उसी में खुशी का सार है।

जिसका कोई अंत नहीं,
जिसे अमरता का वरदान है,
जिसे कोई बांध नहीं सकता,
वही खुशी का एहसास है।


-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
१८-०८-०९ 18-08-09