This poem is dedicated to my good friend Sudhir Kumar, without whom it was never going to be complete.
पल में चमक पल में अंधकार,
क्षण में जीत क्षण में हार,
ये मेरा धूमकेतु सा जीवन ।
अपने ही पथ पर घूमता,
जैसे हर घड़ी कुछ ढूँढता,
ये मेरा धूमकेतु सा जीवन ।
अग्नि सा जलता तन,
अलाव की राख़ से आँसू,
ये मेरा धूमकेतु सा जीवन ।
कुछ रास्ते छोड़ता कुछ रिश्ते जोड़ता,
तब भी अपने में सुलगता,
ये मेरा धूमकेतु सा जीवन ।
परम सत्य की तलाश में,
झूठ से घायल आकाश में,
ये मेरा धूमकेतु सा जीवन ।
देखा है मैंने धर्म को जलते हुए,
आस्था की आँच पर ईश्वर-अल्लाह को ढलते हुए,
अब ना जाने कितना जलेगा,
ये मेरा धूमकेतु सा जीवन ।
-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
१९-०८-०९ 19-08-09
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