This poem was written by Mr. Prasoon Joshi after the Mumbai attacks of 26th November. I found it worth posting on my blog.
इस बार जब वो छोटी सी बच्ची मेरे पास अपनी
खरोंच ले कर आएगी,
मैं उसे फूँ फूँ कर नहीं बहलाऊँगा,
पनपने दूँगा उसकी टीस को,
इस बार नहीं।
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखा देखूँगा,
नहीं गाऊँगा गीत पीड़ा भुला देने वाले,
दर्द को रिसने दूँगा, उतरने दूँगा अंदर गहरे,
इस बार नहीं।
इस बार मैं ना मरहम लगाऊँगा,
ना ही उठाऊँगा रुई के फाहे,
और ना ही कहूँगा कि तुम आँखें बंद कर लो,
गर्दन उधर कर लो मैं दवा लगाता हूँ,
देखने दूँगा सबको हम सबको खुले नंगे घाव,
इस बार नही।
इस बार जब उलझनें देखूँगा, छटपटाहट देखूँगा,
नहीं दौड़ूगा उलझी डोर लपेटने,
उलझने दूँगा जब तक उलझ सके,
इस बार नहीं।
इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊँगा औज़ार,
नहीं करूँगा फ़िर से एक नयी शुरूआत,
नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की,
नहीं आने दूँगा ज़िंदगी को आसानी से पटरी पर,
उतरने दूँगा उसे कीचड़ में, टेढ़े मेढ़े रास्तों पर,
नहीं सूखने दूँगा दीवारों पर लगा खून,
हल्का नहीं पड़ने दूँगा उसका रंग,
इस बार नहीं बनने दूँगा उसे इतना लाचार,
कि पान की पीक और खून का फ़र्क की खत्म हो जाए,
इस बार नहीं।
इस बार घावों को देखना गौर से,
थोड़े लंबे वक्त तक,
कुछ फ़ैसले,
और उसके बाद हौसले,
कहीं तो शुरूआत करनी ही होगी,
इस बार यही तय किया है।
-प्रसून जोशी
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