एक समय था जब भारतीय राजनीति की पटकथा बहुत सरल, सुलझी और साफ़ हुआ करती थी। बड़े राष्ट्रीय दलों के नाम पर सिर्फ़ कांग्रेस का ही बोलबाला था और हर लोकसभा चुनाव में उन्हें 543 में से 300-350 सीटें मिलना एक आम बात थी। फ़िर 1977 में स्थिति कुछ हद तक बदली जब 1975 में इंदिरा सरकार द्वारा लगाया गए आपातकाल के बाद लोकसभा चुनावों में सभी छोटे दलों ने एकजुट होकर कांग्रेस के खिलाफ़ मोर्चा खोला। तभी भारतीय लोक दल (बाद में जनता पार्टी) का जन्म हुआ। उनके रूप में आपातकाल की त्रासदी झेल चुकी जनता को आशा की एक नई किरण दिखाई दी। उनका रोष आंदोलन में बदल हो गया और जनता ने कांग्रेस को सत्ता से उखाड़ फ़ेंका। उत्तर प्रदेश, बिहार, दिल्ली, गुजरात, उड़ीसा इत्यादि राज्यों में कांग्रेस एक सीट भी नहीं जीत पाई। यहाँ तक कि श्रीमती इंदिरा गांधी भी अपनी चिरपरिचित सीट रायबरेली से हार गयीं। उनके पुत्र और उस समय के कद्दावर नेता संजय गांधी भी अमेठी सीट से मुँह की खा गए। भारतीय लोक दल को बहुमत प्राप्त हुआ और उन्होंने सरकार बनाई। पर ये सरकार ज़्यादा दिनों तक नहीं चल पाई क्योंकि कुछ ही समय में भारतीय लोक दल के सदस्यों के आपसी मतभेद सतह पर आ गए। इसका ये नतीजा हुआ कि 1980 में फ़िर से चुनाव हुए और उसमें कांग्रेस की बड़ी जीत हुई। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के चलते जो सहानुभूति की लहर उठी, उसकी वजह से कांग्रेस एक बार फ़िर धमाकेदार जीत के साथ वापस आई।
बस उस चुनाव के बाद आज तक कभी भी कोई बिना गठबंधन स्थाई सरकार नहीं बन पाई। 1989 से लेकर 2004 तक छह लोकसभा चुनाव हुए। हर बार कुछ नए समीकरण उभर के सामने आए। कोई भी दल बहुमत प्राप्त नहीं कर पाया और उसकी वजह से गठबंधन सरकार का दौर चल गया जो अब तक बदसतूर जारी है। इसका प्रमुख कारण क्षेत्रीय दलों की लोकसभा चुनावों में बढ़ी भागेदारी है। जब क्षेत्रीय दल अपने अपने राज्यों में सीटें जीतने लगे तो उसका दुष्परिणाम ये हुआ कि चुनाव बाद गठबंधन में सांसदों की खरीद-फ़रोख्त बहुत बढ़ गई। 1996 के बाद हुए चुनाव इसका प्रमाण हैं।
आज (2009) की स्थिति ये है कि बड़े राष्ट्रीय दल जैसे कांग्रेस और भारतीय जनता पार्टी को छोटे क्षेत्रीय दलों के साथ चुनाव पूर्व हाथ मिलाना पड़ रहा है। उन्हें इन दलों के साथ विभिन्न राज्यों में सीटों का बंटवारा करना पड़ रहा है और साझा उम्मीदवार खड़ा करने की कवायद शुरू हो चुकी है। इसमें कोई गलत बात नहीं है परंतु जब ये क्षेत्रीय दल अपने समर्थन के बदले आर्थिक लेनदेन और मंत्री पद की लालसा व्यक्त करते हैं तो ये गठबंधन एक गंदी राजनीति का रूप ले लेता है। और इस खरीद-फ़रोख्त और बंटवारे का मौकापरस्त नेता खूब लाभ उठाते हैं। उदहारण के तौर पर लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष राम विलास पासवान 1999 की भाजपा शासित राष्ट्रीय लोकतांत्रिक गठबंधन की सरकार में मंत्री थे। फ़िर 2004 के चुनावों के बाद वे कांग्रेस शासित संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की सरकार में भी मंत्री हैं। है ना कमाल? ऎन मौके पर पाला बदल कर दोनों हाथों में लड्डू लिए पिछले दस सालों से मौज कर रहे हैं। शायद इसी को कहते हैं दसों उंगलियाँ घी में और सिर कढ़ाई में।
अब सवाल उठता है कि इस समस्या का समाधान क्या है? किसी भी दल के चुनाव लड़ने के मौलिक अधिकार को तो छीना नहीं जा सकता। पर समझदारी से मतदान तो किया ही जा सकता है। आम जनता को चाहिये कि वो अपने बुद्धि-विवेक से मतदान करे और ऐसे उम्मीदवार को जिताए जो दल-बदल की राजनीति में विश्वास ना रखता हो। ऐसा करने से स्थिति में सुधार होगा और चुनाव बाद की खरीद-फ़रोख्त पर लगाम लग सकेगी। साथ ही देश को एक गंभीर और स्थिर सरकार मिलेगी जो देश की समस्याओं को सुलझाने में ज़्यादा सक्षम होगी। तो आने वाले लोकसभा चुनाव-2009 में अपने मतदान के अधिकार का प्रयोग समझदारी से आँख-कान और बुद्धि के पट खुले रख कर करें और देश एंव समाज के प्रति अपने कर्तव्य का निर्वाहन करें।
जागो रे!!!!!
No comments:
Post a Comment