मेरे प्रिय मित्र मुदित सिंह को समर्पित। भगवान उसे सदबुद्धि दे।
अलसाई सी सुबह में अंगड़ाई लेता कोई,
और उसकी अधखुली आँखों में,
नए दिन के लिए देखे सपनों की झलकी,
याद दिलाती उसे कि आज फ़िर उसकी,
मंज़िल काफ़ी दूर अपना डेरा है डाले बैठी।
मंज़िल की चाह में फ़ुर्ती से उठ बैठा वो,
शीघ्रता से मन को किया कड़ा,
और सुबह की हसीन नींद के आनंद को त्यागा,
उस निश्चल निर्विघ्न नदी की भांति,
जो सागर से मिलने से पहले दम भी नहीं भरती।
आज उसकी वो मेहनत रंग लाई और वो,
कामयाबी की ऊँचाइयों को छूता हल्के से मुस्कुराता,
बीते दिनों की यादों में खोता यही सोचता,
कि कहीं उस रोज़ वो आलस कर बैठता,
तो आज ये हसीन मंज़र उसे ताउम्र नसीब न होता।
-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
३१-०३-२००९ 31-03-2009
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