आखिरकार वो दिन आ ही गया, जिस दिन का हर भारतीय आम आदमी को बरसों से इंतज़ार था। २३ मार्च, २००९ को टाटा ने अपनी नवीनतम, सबसे किफ़ायती और आम जनता की पहुँच वाली कार 'नैनो' का अनावरण कर दिया। अब वो दिन लद गए जब स्कूटर से जाते समय बारिश की वजह से आपका सामान और किताबें इत्यादि भीग कर खराब हो जाया करता था। और लाल बत्ती पर किसी अमीरज़ादे की गाड़ी देख कर आप मन ही मन सोचा करते थे कि काश मेरे पास भी एक कार होती। काश मैं भी अपने परिवार के साथ इस शानदार सवारी का आनंद ले सकता। तो लीजिये जनाब, जो वादा श्री रतन टाटा ने कुछ वर्षों पहले भारत की जनता से किया था कि एक दिन वो भारतीय बाज़ारों में 'लखटकिया' कार लेकर आएँगे वो आज पूरा हो चला है। अब कोई भी साधारण नौकरी पेशा और मध्यमवर्गीय परिवार गर्व से कह सकता है कि वो भी 'कार वाले' हैं।
पर इन सब सपनों के बीच एक हकीकत का आईना है जिसे देख मैं थोड़ा विचलित हूँ। आप कह सकते हैं कि मैं एक निराशावादी की तरह सोच रहा हूँ परंतु इस ओर भी गौर करना आवश्यक है। मुझे अभी टाटा नैनो की विश्वसनीयता पर संदेह है। जैसे कि, क्या ये कार जिसका रंग-रूप और आकार उसके नाम के अनुरूप ही काफ़ी छोटा और नाज़ुक सा दिखता है, भारतीय सड़कों के साथ न्याय कर पाएगा? अर्थात, क्या ये कार भारतीय परिस्थितियों में, जो कि काफ़ी कठिन हैं, उन्हें सह पाएगी? और सड़क पर इसमें बैठे परिवार की सुरक्षा की क्या गारंटी है? इसके अतिरिक्त क्या पर्यावरण पर खतरा और बढ़ नहीं जाएगा? जबकि इतनी कारें सड़कों पर हैं, इनके सस्ते नमूने उपलब्ध होने पर और हर किसी की पहुँच में आने पर क्या पर्यावरण इससे प्रभावित नहीं होगा? जो परिवार अभी तक सार्वजनिक परिवाहन इस्तेमाल करता था, वो भी कार में चलेगा तो इससे सड़कों पर मुसीबतें बढ़ने की पूरी संभावना है।
एक और बात है जो थोड़ी हास्यास्पद है परंतु यहाँ इसकी चर्चा करना अनुचित नहीं होगा। रतन जी ने वादा किया था कि वो 'लखटकिया' कार लाएँगे। पर नैनो के दाम, भले की काफ़ी कम हों, सहायक उपकरणों के साथ एक लाख से काफ़ी ज़्यादा हैं। तकनीकी रूप से सोचें तो 'लखटकिया' कार अभी भी 'मुंगेरीलाल के हसीन सपने' की तरह ही है। परंतु कोई कुछ भी कहे, या कितने ही तथ्यों का डंका पीटे, उस दिन भारतीय सड़कों पर क्रांतिकारी परिवर्तन के लिए तैयार रहें जिस दिन नैनो की पहली खेप ग्राहकों को जारी की जाएगी।
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