Thursday, May 27, 2010

Bojh (बोझ)

उम्मीदों के बोझ तले दबे ये कंधे,
और उन पर टिका ये मस्तक,
जिस पर गहराती लकीरों के पीछे से झांकती मायूसी,
शायद यही बयां करती है कि कुछ ठीक नहीं है।

अनसुलझे प्रश्नों के भंवर में फंसा ये मन,
जिसमें चिंतन की लहरें उठती तो हैं,
परंतु तट तक पहुँचने से पहले ही,
दम तोड़ देती हैं।

गर्म रेत की चादर पर फैली,
पथरीली चट्टानों सी घबराहट को इंतज़ार है,
पश्चिम की उस बयार का जो अपने साथ बादलों का झुंड लाए,
और प्यासी धरती की आग बुझाए।

तरसता हूँ मैं आज उस मासूम मुस्कुराहट के लिए,
जिसकी खनखनाहट सुन कभी मेरा सवेरा होता था,
अब तो जूझता हूँ मैं अपने ही आप से,
कि शाम ढले किसी तरह अपने डेरे तक पहुँच जाऊँ।


-प्रत्यूष गर्ग
१२-०२-२०१०

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