वक्त अपनी रफ़्तार से चलता रहा और हम मंज़िल की तलाश में भटकते रहे,
इस बीच एक हमसफ़र मिला तो सोचा साथ चलेंगे तो राहें आसान होंगी।
पता ही न चला कि कब मंज़िल से ज़्यादा राहें प्यारी हो चलीं,
क्योंकि इस बहाने हमसफ़र के साथ चलने का बहाना मिल गया।
ज़िंदगी है ही ना खत्म होने वाला सफ़र,
जिसमें गर कोई साथी मिले तो मज़ा ही कुछ और है।
आज मुड़ कर देखते हैं तो सफ़र के निशां दिखते हैं,
हमारे साथ के गवाह हमारे अपने साथ दिखते हैं।
सैंकड़ों खट्टी मीठी यादों के सहारे हम,
२५ सालों के इस ठहराव पर आ पहुँचे हैं।
अब बस यही दुआ है खुदा से कि इस ठहराव को मंज़िल का नाम न मिले,
और जब तक चल रही हैं साँसें या खुदा ये सफ़र भी यूँ ही चलता रहे।
-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
०१-१०-०९ 01-10-2009
2 comments:
sundar rachana .saalgirah ki badhaiyan aapke parents ko .aapne anmol bhet diya hai .
awesomeeeeeee :)
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