कन्या भ्रूण हत्या की असंख्य घटनाओं से द्रवित हो लिखी गई है ये कविता।
मैं अभी छोटी थी,
बहुत छोटी, नन्हीं सी।
मैनें कभी सूर्य के उजाले को,
देखा तक नहीं था।
ना ही कभी फूलों की खुशबू,
को महसूस किया था।
अभी बहुत कुछ करना था मुझे,
गुड्डे-गुड़ियों की शादी करनी थी,
घर-घर खेलना था।
जल्दी से बड़ा हो और,
खूब पढ़ाई कर,
डाक्टर बनना था।
पर शायद मेरे माँ-बापू,
भैय्या चाहते थे।
मेरे अंदर होने का जब उन्हें पता लगा,
उनका उल्लास काफ़ूर हो चला था।
और मेरे पैदा होने से पहले ही,
मुझे मार दिया गया।
मैं चीखी, चिल्लाई,
पर शायद किसी को भी,
मेरी सिसकी नहीं दी सुनाई।
आखिर मेरा कसूर क्या था,
जो मुझे खुले आसमान के नीचे,
साँस लेने से महरूम किया गया।
मरते मरते भी माँ-बापू,
मैं चाहती थी आपसे ये पूछना,
भैय्या की ही तरह क्यों नहीं दिया,
मुझे भी एक भय रहित उन्मुक्त वातावरण।
और आखिर क्यों दिया मुझे,
ऐसा अधूरा और श्रापित जीवन।
-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
०२-०९-०९ 02-09-09
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