Friday, February 27, 2009

Rekhayein (रेखाएँ)

मेरे हाथ की रेखाएँ
कुछ धुँधली कुछ उजली,
और उनके बीच छिपी
मेरे जीवन की पहेली ।

कहते हैं कि सबकी,
किस्मत की कुँजी इन
रेखाओं में ही कहीं,
दबी सी है रहती ।

मुद्दतों से सभी इनके
मायाजाल में हैं बंदी,
आज तलक कोई भी ना
सुलझा पाया ये गुत्थी ।

बचपन से यौवन तक
की मेरी ये कहानी,
जिसकी पटकथा है लिखी
इन रेखाओं की जुबानी ।

मेरे हाथ की रेखाएँ
कुछ उजली कुछ धुँधली,
और उनके बीच छिपी
मेरे जीवन की पहेली ।

-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
२७-०२-०९ 27-02-09

2 comments:

Vaibhav Jain said...

u have maintained ur high standards.. deep thoughts.. well written

Anonymous said...

awesome dude,kafi acchi poetry karne lage ho...