मुहाने पर ज़िन्दगी के,
हाथों मे तराज़ू लिये,
सबका हिसाब करने को,
कोई इंतज़ार में है ।
इस पल से बेख़ौफ,
यहाँ लाखों की भीड़,
करोड़ो पाने की इस
जद्दोजहत में मशगूल हो,
सब कुछ भुला के,
कुछ भी करने को
बेकरार दिखती है ।
पर अपने कर्मों से
जो निशान पीछे छोड़े,
उसकी फ़िक्र ना है
किसी को ज़रा भी ।
कुछ हैं अभी भी,
जो नहीं भूले कि
जो किया है उसे,
तौलने वाला दूर कहीं है ।
शायद इसीलिये अभी भी
दुनिया मे कहीं कहीं,
इंसानियत के कुछ नमूने
नज़र आ जाते है ।
मुहाने पर ज़िन्दगी के,
हाथों मे तराज़ू लिये,
सबका हिसाब करने को,
कोई इंतज़ार में है ।
-प्रत्यूष गर्ग Pratyush Garg
२०-१०-२००८ 20-10-2008
1 comment:
one of the best poems i have read in the recent times... and so very true
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